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लेखनी कहानी -08-Jul-2022 यक्ष प्रश्न 1

बड़े साहब

आज सुबह-सुबह "बड़े साहब" मिल गए । वो भी पार्क में टहलने आते हैं और हम भी । बस, वहीं मुलाकात हो गई । खुशी के मारे उनके चेहरे से नूर टपक रहा था । दो दिन पहले जब मिले थे तो उनका चेहरा एक पके हुए आम की तरह झुर्रियों वाला और पिलपिला सा लग रहा था लेकिन आज एकदम काश्मीर के सेव के जैसे लाल सुर्ख दमकता हुआ सा था । दो ही दिन में इतना तगड़ा बदलाव कैसे आ गया ? ऐसी कौन सी जादू की "झप्पी" किसी ने उनको दे दी कि उनकी रंगत , चाल ढाल सब बदल गई ? जो बॉलीवुड में "जादू की झप्पी" दिया करता था उसे खुद जादू की झप्पी की जरूरत पड़ी हुई है आजकल । फिर ऐसा और कौन पैदा हो गया जो जादू की झप्पी से ऐसा तगड़ा बदलाव दो दिनों में लाकर दिखा दे ? या फिर बिना जादू की झप्पी और क्या कारण हो सकता है उनके इस तरह चमकने का ? सोच सोचकर हमारा सिर चकराने लगा । 

हमने उन्हें नमस्कार किया । "बड़े साहबों" की आदत होती है कि वे नमस्कार का जवाब नहीं देते हैं । नमस्कार करने वाले को देखते तक नहीं हैं । जो जितना बड़ा साहब होगा वह बाकी लोगों को उतना ही छोटा समझेगा, यह बात हम जानते थे । इसलिए जब उन्होंने हम पर दृष्टिपात करना उचित नहीं समझा तो हमें कन्फर्म हो गया कि वाकई में साहब "बहुत बड़े" हैं । 

हम अपनी शंका के मारे मरे जा रहे थे और वे हमारी हालत देखकर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे । आखिर हमने पूछ ही लिया ।
"साहब जी । छोटा मुंह और बड़ी बात वाली कहावत है इसलिए पूछने की हिम्मत कर रहा हूं वरना तो आपसे पूछने की हिम्मत तो बड़े बड़े मंत्री भी नहीं कर सकते हैं । आपका चेहरा कल परसों तक तो "सड़े केले" की तरह दिख रहा था आज वही चेहरा"कश्मीरी सेव" कैसे बन गया" ? मैंने डरते डरते पूछा ।

मेरी बात पर वे बहुत जोर से हंसे । हंसते हंसते  कहने लगे 
"कल तक मैं सरकार से बहुत दूर था । मुझे रिटायर हुए कई दिन हो गए थे । आप तो जानते ही हैं कि रिटायरमेंट के बाद हमारे बंगलों में "मक्खी" भी भिनभिनाने से इंकार कर देती है , आदमी की तो बात ही क्या है ? हम लोगों को सरकारी नौकरी में "सलामी" लेने की आदत पड़ जाती है । दिन में हमको जब तक सौ दो सौ लोग सलाम नहीं कर लें तब तक मजा नहीं आता है । रिटायरमेंट के बाद लोगों की तो छोड़िए  सलामी के दर्शनों के भी मोहताज हो गए थे हम । सलामी से ही तो अफसरों के चेहरे पर रंगत आती है । सलामी नहीं तो रंगत नहीं । समझ गए न बरखुरदार ?

फिर,  हमें तो भौंकने की आदत भी पड़ी हुई है । जब तक दिन में दस बीस बार ऑफिस में किसी अधिकारी या बाबू, चपड़ासी पर भौंक नहीं लें और किसी कर्मचारी को काट नहीं लें तब तक हमारा भोजन भी हजम नहीं होता है । रिटायर्मेंट के बाद भौंकने का मौका ही नहीं मिला । ऐसे में हमें अपच की बीमारी हो गई जिसके परिणामस्वरूप हमारा चेहरा "सड़े केले" जैसा हो गया था ।

हमारे घरों में एक अलिखित समझौता किया हुआ है हम पति-पत्नी के बीच । ऑफिस में हम लोग बॉस होते हैं और घर में बीबी । हम ऑफिस में लोगों को डांटते हैं और घर में बीबी हमको डांटती है । इस तरह हमारा हिसाब किताब बराबर हो जाता है । लेकिन सेवानिवृत्ति के पश्चात हमारी डांट डपट तो बंद हो गई लेकिन बीबी की बदस्तूर जारी रही । जब तक नौकरी में थे यह "इन टेक और आउट टेक" बराबर चलता यहा । मगर रिटायर्मेंट के बाद "आउट टेक" तो बंद हो गया मगर "इन टेक" चलता ही रहा । इससे हमारा "डांट संतुलन" बिगड़ गया और हमारा हाल एक सड़े हुए केले जैसा हो गया ।

असली बात तो अब तक मैंने बताई ही नहीं है । दरअसल हम लोगों को चार चार सरकरी गाड़ियां रखने की आदत पड़ी हुई थी । एक हमको , एक घरवाली को , एक बच्चों को और एक "गोपनीय कार्यों" के लिए । सेवानिवृत्त होने के बाद एक भी गाड़ी नहीं रही बंगले में । अफसर की पहचान ही गाड़ी बंगलों से होती है । जब गाड़ी बंगला नहीं तो ऐसा लगा कि हम भी अफसर नहीं रहे । सौ बात की एक बात है कि "अफसरी" का रौब सबसे ज्यादा नशा देता है । "रौब" में जो नशा है वह किसी रम, शैम्पेन या वोदका में कहां है ?  सेवानिवृत्त होने के बाद वह नशा काफूर हो गया । बिना नशे के यह दुनिया वीरान सी लगने लगी थी । जैसे जीने का मकसद ही खत्म हो गया हो ।

गाड़ी के अलावा हमारा निजी स्टाफ भी होता है जो हमारे "निजी" काम ही करता है मगर वेतन सरकार देती है उनको । रिटायरमेंट के बाद बिजली, पानी , टेलीफोन के बिल जमा करवाने के लिए हमें भी लाइन में खड़ा रहना पड़ता था । एक दिन हम ऐसे ही एक लाइन में खड़े थे । आगे एक भिखारी टाइप का दढियल आदमी और पीछे एक बदबूदार पियक्कड़ सिंह खड़ा था । आगे और पीछे से आने वाली दुर्गंध के मारे हमारा बुरा हाल था । बीच बीच में कोई "सिसकारी" छोड़ छोड़ कर खड़े रहना भी दुर्लभ बना रहा था । पता नहीं क्या क्या खाकर आते हैं लोग लाइन में लगने के लिए जो ऐसी भयंकर "गैस" विसर्जित करते हैं कि वह सौ बमों का सा असर करती है ।

जी तो कर रहा था कि हम उस लाइन से भाग जाएं लेकिन भागें भी तो कैसे ? घर पर बीवी डंडा लेकर खड़ी रहती है । अगर बिना काम किए घर वापस आ गये तो मार मार के "हुक्का बार" बना देती हैं । जब अफसर थे तो घर का सारा काम जैसे ये बिजली पानी के बिल जमा करवाने का आदि आदि हमारा "स्टाफ" ही करता था । इसलिए हमें कुछ करना नहीं पड़ता था सिवाय हुकुम सुनाने के । मगर रिटायरमेंट के बाद तो स्टाफ भी भाव नहीं देता है ।

वे हमारे एकदम नजदीक आ गये और हमारे कान में अपना मुंह घुसा कर कहने लगे । " अब में आपको सही सही बात बताता हूं । एक रुपये महीने की पगार पर हमने ये नौकरी ऐसे ही शुरू नहीं की है ? असल में तो सबसे बड़ा फैक्टर "गांधी जी" ही हैं । जब हम अफसर थे तब जब तक हरे और लाल लाल नोटों की गड्डियों के दर्शन नहीं हो जाते थे तब तक हम अन्न जल ग्रहण नहीं करते थे । अब उन गड्डियों के दर्शन दुर्लभ हो गए थे । हम तो वचन के पक्के थे इसलिए अन्न जल भी ग्रहण नहीं कर रहे थे । भूख प्यास के कारण हमारी हालत सूखे छुआरे जैसी हो गई थी ।  जिस तरह शराबी शराब के बिना जी नहीं सकता है उसी तरह "सरकारी आदमी" "लाल हरी" गड्डी के बिना नहीं जी सकता है । हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं बचा था सिवाय पुन: नौकरी शुरू करने के । इसलिए एक रुपए तनख्वाह पर ही हमने नौकरी स्वीकार कर ली । अब जबसे वापस "कुर्सी" पर बैठे हैं तब से वापस "लाल हरी" दुनिया के दर्शन होने लगे हैं । अब जाकर अन्न जल ग्रहण किया है हमने । वचन के पक्के जो ठहरे ।

वो कुछ और बताते , उससे पहले ही हम बीच में बोल पड़े "ये एक रुपया महीने का चक्कर क्या है" ? 

यह बात सुनकर वे बड़ी देर तक हंसते रहे । हंसते हंसते लोटपोट हो गए । पेट पकड़कर हंसने लगे । फिर बोले "नौटंकियों" का देश है यह । यहां पर जो जितना बड़ा त्याग करता है वह उतना ही पूजनीय बन जाता है । ‌‌भगवान राम ने सिंहासन का त्याग कर वन गमन किया तो वे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम कहलाए । सिद्धार्थ ने घर छोड़ा । बीवी बच्चे छोड़े । राज्य छोड़ा और एक सन्यासी बन गए तो लोगों ने उन्हें "भगवान बुद्ध" बना डाला । एक "मौनी बाबा" को गद्दी पर बैठाकर कोई "त्याग की देवी" बन गई तो हमने भी "वेतन" का त्याग करके "त्याग का देवता" बनने की कोशिश की है । 

एक रुपया महीना तो केवल प्रतीकात्मक है । आप तो जानते ही हैं कि भारत में एक रुपए की महिमा कितनी बड़ी है । जितने भी "नेग" होते हैं वे सब एक रुपए से ही किए जाते हैं । यहां तक कि दहेज में एक रुपए और नारियल का ही प्रावधान है । आपको याद होगा जब माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक नामी गिरामी वकील के मानहानि मामले में उसे "एक रुपए" के दंड से दंडित किया था और "एक रुपए " की महत्ता फिर से प्रतिपादित की थी । तो हम भी इस "एक रुपए" की महिमा से प्रेरित होकर "एक रुपया महीना" पगार लेने पर अड़ गए" । वे मुस्कुराते हुए बोले । 

हमने उनकी हां में हां मिलाते हुए कहा "बिल्कुल सही बात है । ज्यादा तनख्वाह लेते तो लगभग तीस प्रतिशत "कर" देना पड़ता सरकार को और उसके अलावा "सैस" भी देना पड़ता । फिर आपके पास बचता ही क्या ? अब आप लूटेंगे तो दोनों हाथों से , मगर "टैक्स" कुछ चुकाना नहीं पड़ेगा । वाह ! क्या आइडिया है सर जी" ! 

उन्होंने बात आगे बढ़ाई और कहा "अब हम जब सरकारी दौरों पे जाया करेंगे तो बीवी बच्चों को भी साथ ले जाया करेंगे । इससे एक तो यह फायदा होगा कि सबका फ्री में "ट्यूर" हो जाएगा । सर्किट हाउस या तीन सितारा होटलों में एशो-आराम हो जाएगा । कोई न कोई अधिकारी श्रीमती जी की शॉपिंग करवा ही देगा । वहां की लोक कला, गीत संगीत सबका आनंद सरकारी खर्चे पर लेंगे । एक रिटायर्ड आदमी को और क्या चाहिए ? अब क्या सरकार की जान ही ले लें " ? 

उनके जज्बे को , अद्भुत त्याग को , जनसेवा की भावना को हमने दंडवत प्रणाम किया । वे हमें ढेरों आशीर्वाद देकर झूमते हुए सफेद हाथी की तरह विदा हो गए ।


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3 Comments

Rahman

14-Jul-2022 10:28 PM

Mst

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Chudhary

14-Jul-2022 10:03 PM

Nice

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Gunjan Kamal

14-Jul-2022 06:57 AM

शानदार प्रस्तुति 👌

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